हम भी रहते हैं
आपकी इस दुनिया में
इसके कोनों-खूँजों में
सिमट-सिमटकर !
आपकी कोठियों के पिछवाड़े
आपकी कालोनियों से बाहर
और कई बार
उनके बिल्कुल भीतर भी
हम रहते हैं
नासूर बनकर !
इसी धरती के ऊपर
बीतते हैं हमारे दिन भी
या वे केवल रातें हैं?