आग उगलती उधर तोप, लेखनी इधर रस-धार उगलती,
प्रलय उधर घर-घर पर उतरा, इधर नज़र है प्यार उगलती!
उधर बुढ़ापा तक बच्चा है, इधर जवानी छन-छन ढलती,
चलती उधर मरण-पथ टोली, ’उनपर’ इधर तबीयत चलती!
भुजदण्डों पर उधर भवानी, इधर जमाना पतित तर्क का,
जग ने ठीका दे रक्खा है, उधर स्वर्ग का, इधर नर्क का!
हाय सूर से सीख न पाये
दो सूजी से आँखें देना
विद्रोहिनी विजयिनी मीरा
कहती किसे? जहर पी लेना?
ओ बेमूछों के बलिपन्थी! आ इस घर में आग लगा चल,
ठोकर दे, कह युग! चलता चल, युग के सर चढ़, तू चलता चल!
रचनाकाल: खण्डवा-१९४०