युद्ध की ज्वाला जगी है।
था सकल संसार बैठा
बुद्धि में बारूद भरकर,—
क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, मद की,
प्रेम सुमनावलि निदर कर;
एक चिन्गारी उठी, लो, आग दुनिया में लगी है।
युद्ध की ज्वाला जगी है।
अब जलाना और जलना,
रह गया है काम केवल,
राख जल, थल में, गगन में
युद्ध का परिणाम केवल!
आज युग-युग सभ्यता से काल करता बन्दगी है।
युद्ध की ज्वाला जगी है।
किंतु कुंदन भाग जग का
आग में क्या नष्ट होगा,
क्या न तपकर, शुद्ध होकर
और स्वच्छ-स्पष्ट होगा?
एक इस विश्वास पर बस आस जीवन की टिकी है।
युद्ध की ज्वाला जगी है।