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युवक क्लार्क / नरेन्द्र शर्मा

साँझ हो गई, घर को आया दिन भर का ऊबा-ऊबा,
एक उबासी ले, करवट ली, सुख-सपनों में जा डूबा!

आसमान का नील चँदोवा ऊपर, नीचे हरियाली।
पास कहीं बहता जल, ऊपर लदी फूल-फल से डाली!

चाँद-सितारों की रातें हों, बीतें धूप-छाँह के दिन,
वहाँ न बीतें रात सितारे और दिवस घड़ियाँ, गिन गिन!

गीत सुनूँ कोयल-बुलबुल के, प्रीति करूँ तो जंगल से!
मन बहलाऊँ पेड़ों नीचे देख देख छाया-छल के!

हो मानुष की गंध न वन में, हों न यहाँ के दु:ख-कलेस;
है इतनी-सी चाह हमारी कहाँ मिलेगा पर वह देश?

जिन जिन को मैं भूल चुका हूँ, मुझे याद आयें न कभी;
जिसने मुझको भुला दिया हो, उसे भुला दूँ यहीं, अभी!

ऐसा देश दिखाओ, जिसमें हो न मोह-फाँसी-फंदा;
दिल ऐसा ख़ुश ख़ुश हो जैसे पूरनमासी का चंदा!

रोटी की ख़ातिर बनना हो नहीं किसी का मुझे ग़ुलाम,
ताँबे के मैले टुकड़ों पर हो न काम से कोई काम!

है इतनी-सी चाह हमारी पूरी कर, मेरे ईश्वर!
एकाकी हूँ, मेहनतकश हूँ, और किराए का है घर!

साँझ हो गई, घर में बैठा दिन भर का ऊबा-ऊबा,
एक जँभाई ले, अँगड़ा कर सुख-सपनों में जा डूबा!