यूँ ही
उसके क़दमों की आहट
सुनाई नहीं देती
खटकाता है वह कुंडी इस तरह
मानो डरता हो
कहीं जाग ना जाए दीवार पर सोई छिपकली
इस तरह आता है वह
और घुल जाता है इस तरह
जैसे कभी गया ही न था
अपनी खिलखिलाती हँसी से
भर देना चाहता हो जैसे
उन तमाम कोनों को
उदासी जहाँ बाल बिखेरे बैठी है
कुछ देर के लिये ही सही
समेट लेती है वह जूड़े में बाल
घूमने लगती है यूँ ही
इधर-उधर
बनाती है चाय
बिखरे घर को समेटते
व्यस्त होने का दिखावा करती
हँसती है फीकी हँसी
वह बना रहता है अनजान
फिल्मों की बातें करता है
पूछता है बच्चों के हाल-चाल
अचानक घड़ी को देखते हुए
कुछ इस तरह चल देता है
जैसे याद आया हो अभी-अभी
छूट रहा कोई
बेहद ज़रूरी काम
बहुत जल्दबाजी में विदा ले
निकल आता है वह सड़क पर
जहाँ घंटों भटकता है
यूँ ही