Last modified on 16 जुलाई 2012, at 23:27

यूँ ही तो नहीं / अरुणा राय

भावप्रवण आँखों वाले मेरे आत्ममुग्ध प्रिय !
तुम क्यों इस तरह बार-बार मुझसे विमुख हो जाते हो ?
 
वह कौन सी मृगतृष्णा है जो भगाए लिए जा रही है,
देखो मेरी आँखों में डूबकर,
तुम्हारी आत्मा को रससिक्त करने वाला जल यहाँ है,

तुम ऐसे जो आत्ममुग्ध फिरते रहते हो
क्या तुम्हारे आत्म में मैं शामिल नहीं ?

इतने प्रभंजनों में भी जो हमारे विश्वास की चमक बढ़ती रही है
वह यूँ ही तो नहीं थी ।
प्रिय ! यूँ ही तो नहीं....