सबकुछ जाने सबकुछ समझे
पागल ये फिर भी धुन है
औचक टूट गए सपनों की
उचटी आँखों की धुन है |
इस धुन की ना जीभ सलामत
ना इस धुन के होठ सलामत
लंगड़े, बहरे, अंधे मन की
व्याकुल ये कैसी धुन है |
खेल-खिलौने टूटे-फूटे
भरे पोटली चिथड़े-पुथड़े
अत्तल-पत्तल बाँह दबाए
खोले-बाँधे की धुन है |
क्या खोया-पाना, ना पाना
अता-पता न कोई ठिकाना
भरे शहर की अटरी-पटरी
पर गिरती-पड़ती धुन है |
फूटा लोटा, टूटी डोरी
भठे कुएँ पर खड़ा बटोही
बेसुध कंकड़-पत्थर भरती
ये कैसी प्यासी धुन है |
किए-धरे का लेखा-जोखा
झाड़ों ने कब तौला-देखा
काँटों में घायल पंखों की
ज्यों फड़फड़ करती धुन है |
ऐसा होता, वैसा होता
तो आज समय कैसा होता
बीती बातों को धुनने की
बेमतलब गुनती धुन है |