कि जैसे तय है सूरज का निकलना
कि जैसे तय है मौसम का बदलना
कि जैसे साँस का आना है निश्चित
कि जैसे तय हैं पत्थर रास्ते में
सभी होंगे सफर में साथ मेरे
यह तय है तुम न होगे
कभी जब रात हो और नींद न हो
तो सबके संग तुम्हारी बात होगी
शहर के गर्द चक्का जाम दुख में
तुम्हारी याद का जंगल उगेगा
मगर जब भी तुम्हारी बात होगी
यह तय है तुम न होगे
किसी दिन पेट भर खाऊँगी रोटी
किसी दिन आत्मा तक प्यास होगी
किसी दिन नींद में गेहूँ उगेंगे
किसी दिन बावड़ी भर रेत होगी
कई शक्लों में ढल कर दिन मिलेंगे
ये तय है तुम न होगे
कोई चक धूप में मारेगा पत्थर
तो आधी नींद में ढूँढूँगी मरहम
ये पत्ता एक दिन पीला पड़ेगा
हजारों आँधियाँ नापेंगी दमखम
कभी जीतूँ कहीं मैं हार जाऊँ
यह तय है तुम न होगे।