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ये सुनने के लिए अप्रस्तुत / नईम

ये सुनने के लिए अप्रस्तुत
उनसे कुछ कहना हराम है।
दुआ-सलामों के दिन बीते
लिए दिए ही राम राम है।

यह कैसा मंज़र है, कैसी गहमा-गहमी,
महज़ जिं़दगी नहीं मौत तक बैठी सहमी।
ख़ास नहीं कहने-सुनने को,
किंतु आज यह दर्द आम है।

व्यक्ति वस्तु के बीच केंचुलों को उतारकर
संबंधों के सिरहाने कुंडली मारकर,
क्रमशः आकर बैठ गया जो-
पोर-पोर में,
भय अनाम है।

अपना-सा मुँह लिए इधर, वो उस कोने में-
बैठे हैं हम मैयत हो या फिर गौने में।
शहंशाह धरती के रूठे
कालदेवता आज वाम है।