|
गुज़रने ही वाली है सर्दी, हाथ मिलाकर दोस्त कहता है
चमड़ी ठण्डी है, शायद लहू हो गया है सर्द
बहुत दिन हुए, मेरा घर जैसा बंध्या उपत्यका।
लहू की किस कविता में छिपी थी यह
आधी रात
देह के हर एक रोमकूप में बढ़ता है उत्ताप
उत्ताप चुराती है नींद, अश्वकलान्त में लिया गया आराम
तहस-नहस कर, रफ़्तार के साथ दौड़ता यज्ञा का घोड़ा
सर्दी की ताक़त को तोड़कर सुलगाती है आग
बंध्यापन, शीत, नींद, जड़ता-मृत्यु के ही नाम
जनमते ही जीवन अपने हर कोष में ले आता है
सृष्टि की पीड़ा।
मूल असमिया से अनुवाद : दिनकर कुमार