कुर्सियां खाली हैं
छितराई हुई सी
मंच पर अंधेरा है
हेमलेट के एकालाप अब अकेले हैं
उन्हें कोई नहीं कह रहा कोई नहीं सुन रहा
बेआवाज़ वे घूमते हैं ठंडे प्रेक्षागृह में
पहली बार महसूस हो रहा है रात है
और बाहर अंघेरा है
और कोई नहीं चीख रहा है मंच पर
कि मृत्यु की तरह भयंकर होती है कभी-कभी चुप्पी
ढेर सारे शोर-शराबे के बाद
ऐंठती-इठलाती छायाओं और मृदु मग्न तालियों के बाद
नीली स्पॉटलाइट की स्निग्धता बुहार नहीं सकी है जिस दुःख को
उसके बीत जाने के बाद
अंधेरा है
मृत्यु की तरह काला
चुप्पी है
मृत्यु की तरह भारी
न कोई दर्शक
न अभिनेता
न साज़िंदे न वाद्य वृंद
न कोई समय, न कोई दुःख
सिर्फ़ एक निर्वेद में
सांस रोके लेटा है प्रेक्षागृह
एक शव की तरह
क्या पुनर्जन्म की प्रतीक्षा में?