रंग बदलती दुनिया पैर जमाते मौसम
शीशे के अरमान ढूँढते हैं पत्थर जैसे हमदम
नासूरों के हाथों बिकता यहाँ आजकल मरहम
शक्लों का सौदा करता है ईंटों का ये दर्पण
मिट्टी की किस्मत पर हँसते हैं मुए काँच के बर्तन
धूप संग अब खुश रहता है बादलों वाला सावन
गलियारों में भटक रहा है बड़े घरों का आँगन
खून में लथपत, कीचड़ से डरता किसका है ये दामन
रुक्सत की ज़िद लिए है बैठी ये आनी-जानी दुल्हन
बड़बोली है रुस्वाई में भी ये किस सुर्ख़ाब की गर्दन
बावरे, पगले, सौदाई तुम 'शिव' , कुछ भी कहते हो हरदम...