रंग भरी नदी / रामनरेश पाठक

पलाशों की देह में चिनगी फूली है
आम और महुए का दर्द धरती पर लोट रहा है
कच्ची कचनार के पोर पोर में तृष्णा जग गयी है
कोयल ने दारु पी लिया है
बाहर मत निकलो
आओ मेरे पास
खुले कुंतल, नग्न तन, स्वस्थ मन
बाहों के कुञ्ज में समां जाओ
फागुन आ गया है
पछवा भ रही है
मेरे चारों ओर गीत की रंग भरी जवान नदी बह रही है !

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