रक्त सनी हों सुबहें जिनकी
उनकी शामों का क्या पूछो?
सूली पर दिन-रात चढ़े जो
उनके नामों को क्या पूछो?
क्षत-विक्षत क्वाँरी कन्याएँ,
जहाँ मनाती बैठीं मातम,
उनके कैसे ब्याह-बरेखे,
उनके कैसे प्रियतम बालम?
महाकाल की इस लीला में
पूर्णविरामों की मत पूछो।
शहर बदर इन सीताओं से
अपने रामों की मत पूछो।
मोह भंग हो चुके कभी के,
अपने ही घर में हम बंदी,
खड़े खेत चर रहे हमारे,
ये ऐरावत औ वो नंदी।
पगुराते हैं जहाँ खड़े उन-
सदन-सभाओं की मत पूछो?
हर थाने में टँगे हुए जो
उनके नामों को क्या पूछो?
इस बूढ़ी संस्कृति को शायद
औचक मार गया है लकवा,
कम से कमतर हुआ जा रहा
करुणा, नेह-छोह का रक़बा।
औंधी पड़ी रेत में कब से
अब इन नाँवों की मत पूछो।
मिथिला हो या हो बरसाने
गोकुल-गाँवों की मत पूछो।