जो हम नहीं, रे! वही हो गये हैं
जो बनना नहीं चाहिए, बन गये हैं
मरीं घुट के संवेदनाएँ सिसक कर
मृदुंल भाव खंजर में ढल, तन गये हैं
यह कैसी तरक्की, यह कैसा जमाना
न इंसानियत पा रहीं है ठिकाना
भटकतें-भटकतेे भ्रमित हो गयी है
हुए भावना-शून्य, जड़ बन गये हैं
जो बनना नहीं चाहिए, बन गये हैं
मृदुल भाव खंजर में ढल, तन गये
जो मानव रहे, हिंस्र पशु हो गये हैं
भटक के बियाबाँ में खो गये हैं
नहा कर लहू से, चबा हड्डियों को
हैं जिंदा मगर कब्र में सो गये हैं
हम अपनों का ही खून पीते हैं छक कर
लहू के ही कीचड़ में सब सन गये हैं
जो बनना नहीं चाहिए बन गये हैं
यह कैेसा प्रजातंत्र हैं, कुछ तो सोचो
न इंसानियत को पटक कर दबोचो
उठाओ कलम के धनी!लेखनी को
न यों क्रोध में सिर के केशों को नोचो
लुटेरों से भारत पटा जा रहा है
महानाश मस्तक पै मँडरा रहा है
कलम के धनी ही सँवारेंगे मंजूर
कुचल देंगे नहीं नागों के ये फन, नये हैं
जो बनना नहीं चाहिए, बन गये हैं
मृदुल भाव खंजर में ढल, तन गये हैं।