रखे हुए माथे पर महादेश, महाकाल,
सुनो जी वीर विक्रम, सुनो अगिया बैताल!
दूध का धुला कोई, आसन या सिंहासन,
बचा नहीं! सत्ता के साये में दुःशासन;
सँकरे गलियारों से संसद तक सरेआम।
द्रौपदियों की अस्मत करते बैठे हलाल।
फूस समझ चर लेते क्या होता हासिल,
अपने हाथों फूँक रहे घर, अंधे जाहिल;
धर्म और ईमान थोक के भाव बेचते-
मनुश्रद्धा की क़ीमत, आँक रहे हैं दलाल।
कूट रहा छाती अतीत क्यों, वर्तमान गुम,
पता नहीं किन मुल्क़ों में है आगत की दुम;
क़फ़न चुराने, गड़े हुए मुर्दे उखाड़ने में-
है अपनी हिम्मत के आगे किसकी मजाल?
रखे हुए माथे पर महादेश, महाकाल,
सुनो वीर विक्रम, सुनो अगिया बैताल!