उतरप्रदेशी भाषा के प्रसिद्ध कवि व सांग कला की अमर विभूति पंडित रघुनाथ लोक संस्कृति का अभिन्न अंग है। सांग कला को अनेक महान शख्सियतों ने अपने ज्ञान, कौशल, हुनर और परिश्रम से सींचकर अत्यन्त समृद्ध एवं गौरवशाली बनाया। ऐसी महान शख्सियतों में से एक थे ‘टन बी टन कवि' पंडित रघुनाथ। पंडित रघुनाथ का जन्म सन 1922 मे ग्राम फिरोजपुर, निकट खेकड़ा, जिला बागपत मे पंडित देशराज के घर मे हुआ। इनके पिता प. देशराज 5वीं कक्षा तक पढ़े लिखे थे। इनकी माता का नाम अनारो देवी था। पंडित रघुनाथ जी चार भाई थे जिनमे पंडित रघुनाथ सबसे बड़े थे और अशिक्षित थे जबकि बाकि तीनो भाई शैक्षिक होने के साथ साथ सरकारी नौकरी मे थे। पंडित रघुनाथ जी की शादी शांति देवी के साथ गाँव रेवला खानपुर, दिल्ली मे हुई जिससे उनको संतान प्राप्ति के रूप में दो और चार लड़के हुए। पंडित रघुनाथ को बचपन से ही कविता सुनने, गाने व रचने का शौक था। इसलिए उन्होंने पिता के निर्देशानुसार प. मानसिंह गाँव जांवली- उ.प. वाले को अपना गुरु धारण किया। प. रघुनाथ ने पिता के गुरु निर्देश का जिक्र अपनी एक कृति में इस प्रकार किया है कि
इसी तरह कहते कहते, सब अगला पिछला ज्ञान कहा,
जा अपना कर काम, यहां तेरा कुछ कहना बेध्यान कहा,
रूप बदल गया हृदय का, खुद अपने को नादान कहा,
शरीर का रूप बदलता है, और अमर आत्मा प्राण कहा,
नकल करे रघुनाथ बात की, मानसिंह का ज्ञान असल।।
मिट जागी भूल, है जावली स्कूल, और कहीं डोलिये मतना।।
(सांग : पूर्णमल नुणादे)
गुरु मानसिंह के ज्ञान का, रघुनाथ उठाले झोला।।
(सांग: ‘रूपवती चुडावत’)
इसके पश्चात् साहित्यिक बुलंदियों को छूने के बाद उनकी कविताई से प्रभावित होकर लगभग दो दर्जन से ज्यादा शिष्यों ने इनको अपना गुरु धारण किया। पंडित रघुनाथ हमेशा साधू संतो से ज्यादा लगाव रखते थे, इसलिए साधू संतो की संगत मे उनकी कविताई को खूब पसंद किया जाता था। प. रघुनाथ ने लगभग 42 से ज्यादा सांगीतो की रचना की जिसमे उन्होंने रस एवं अलंकारो का बहुत ही सहज प्रयोग किया। इन्होने अपने सान्गीतो में छंद के रुप में 2000 से उपर दोहे, 500 से ज्यादा गजल, असंख्य सवैये, चमोले, बहरे तवील, शेर, काफिये, दौड़, आदि को समाहित किया।
मुश्किल नहीं बात का पाणा, मनुष्य को चाहिये नैम निभाणा,
छन्द भाषा के मांह गाणा, पूरा त्यार हो लिया,
रघुनाथ का गुरु मानसिंह, सच्चा सार हो लिया।।
(सांग : परीक्षित नवल्दे))
दोहा
ओ३म् नम: श्री भगवती, हंस वाहणी मात।
वीणा पुस्तक धारणी, माई लज्जा है तेरे हाथ।।
काफिया
न्यूं तो मै भी जाणु हूँ, ईश्वर काज सारता देख्या,
चाहे क्षत्री का शरीर कटज्या, ना वचन हारता देख्या,
पिता पुत्र अपने को, कभी नहीं मारता देख्या।।
सवैया
पाप हत्या का चढ़ा, अब भार सिर से तारना,
मन में मृग तृष्णा उठी, माया का पाया पार ना,
श्रवण बणूं सेवा करूं, धीरज धरण की धारना,
ये जीव जग जंजाल है, हिम्मत कभी मत हारना।।
चमोला/चौबोला (दोहा+सवैया):
समय-समय की बात है, समय समय का फेर।
समय बदलने में लगै नहीं, एक मिनट की देर।।दोहा।।
जी जंगलों में जा फंसा, मोह ममता की बाड़ में,
मन फंसा कांटे लगे, झंझटों के झाड़ में,
मौसी ने चाला कर दिया, मारी कुल्हाड़ी नाड़ में,
ये बात मन में सोचली, मिलकै चलूं सुसराड़ में।।सवैया।।
शेर
नखरा नाज़ रूहे जिस्म, जब इन्सान ले आया,
कुव्वत होंसला जुर्रत का, जुज़ शैतान ले आया,
फरिश्ता फेर हशर में, मौत का सामान ले आया,
साहबे हक आलम का, सही फरमान ले आया,
वो जलवा जलज़ले का, एकदम तोफान ले आया,
कज़ा को देखकर कातिल का, दिल ईमान ले आया।।
गजल
दिल में मेरे टीस थी, और वो बेटीस थे,
मिल सके रघुनाथ ना, जिनके वादे बीस थे,
वे हुस्न के रहीस थे, मैं चाहत का गरीब था।।4।।
दर्द मेरे दिल में था, और पास में तबीब था,
हो सका इलाज ना, ये मेरा नसीब था।। टेक ।।
बहरे तबील
सब्र है सब्र, किसे कल की खबर, मन में जबर, ममता आने लगी,
फिजा खोती रही, बात होती रही, माता रोती रही, और बताने लगी ।।टेक।।
उनके लोकनाट्यो की गूंज हरियाणा, राजस्थान एवं उतर प्रदेश के विभिन्न शहरों तक सुनाई देती थी। उनके स्वांगों में लोकजीवन व जमीन से जुड़े जनमानस का जिक्र होता था, जिस कारण हर कोई उनके सांगों का दिवाना था। पंडित रघुनाथ उस समय सुर्यकवि पंडित लख्मीचंद जी से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। इसलिए पंडित लख्मीचंद जी की जो देशी तर्ज थी, उन पर भी रघुनाथ जी ने अपनी कविताई करनी शुरू कर दी।
बिन कर्म करे जग में कोई, पदवी ना पाणे का,
रघुनाथ कथै गाना, रंग असली हरियाणे का,
गुरु गाणे का काम चलादे, श्री दुर्गे बल्ली लगादे,
मेरी नाव में।।
(सांग : रामू भगत)
उतरप्रदेश की सांग या रागनी विधा को अगर पंडित रघुनाथ के साहित्य को पृथक किया जाए तो परिणाम एक बड़ा शून्य ही रहेगा। हर आदमी का अपना अलग किरदार होता है तथा अलग हालात व अलग सोच होती है लेकिन इन सब पर न जाकर, अगर हम रचनाकार, गायक, संगीतकार, अभिनेता आदि के रूप में प. रघुनाथ की बात करें तो वह इस क्षेत्र में उतरप्रदेश के अंतर्गत अपने समय की बेजोड़ हस्ती थे, हालाँकि उसी समय और भी कई प्रसिद्ध सांगी हुए, लेकिन प. रघुनाथ तो बस प. रघुनाथ ही थे।
घुटी पड़ी हूँ, सखी रात की,
जितनी सखी हैं, मेरे साथ की,
रागनी रघुनाथ की, ना लाखों में रलै।।
मैं उन्हें एक ऐसी शख्सियत कहूंगा जो अगर उन्हें कोई गंधर्व कवि, आशुकवि, चंद्रकवि, सूर्यकवि भी न पुकारे तो भी मेरे हिसाब से उन्हें धराकवि कहा जाना चाहिए, क्योंकि वे थे ही ऐसे। इसीलिए तो उन्हें उस समय उस क्षेत्र के कवियों व प्रेसों द्वारा उन्हें ‘टन बी टन’ की उपाधि से नवाजा गया, जिसका मतलब इनके बुद्धि की कोई सीमा नहीं है अर्थात उन्हें जो भी उपाधि दी जाए, वो उनके लिए कम ही है।
कृष्ण ने अद्भुत रास दिखाया, रंग रघुनाथ कथा में पाया,
छन्द कथके लहसुर में गाया, कवि आनन्द में झूलगे।।
(सांग: वन पर्व)
दूसरी तरफ अगर देखा जाए तो उन्होंने पौराणिक कथाओं को भी नवीन संदर्भों में रंगित कर समाज मे जागृति लाने का प्रयास किया। किस्सों तथा रागणियों के माध्यम से वे गरीब, अस्पृश्य,पीडि़त आदि को उनके अधिकार दिलाने हेतु चेत्नाम्रत पिलाने मे जोशी दिखाई देते हैं। लोक साहित्य को पारंपरिक पौराणिक दायरे से बाहर निकालकर प. रघुनाथ ने युगीन समस्याओं को लोक के सामने सांगीत के रूप मे कलात्मक तरीके से प्रस्तुत किया है। इन्होंने अपनी रचनाओं में तत्कालीन समस्याओं का सहज रूप से निरूपण, समाज को खण्डित करने वाली कुरीतियों का खण्डन, शिक्षा, तीज त्योहारों, रीति रिवाजों व सामजिक मूल्यों, नैतिक मूल्यों में आई गिरावट, आर्थिक विषमता, रिश्वतखोरी का भंडाफोड करते हुये समाज में जागरूकता लाने का एक प्रयास किया।
अपणा माणस अपणा हो सै, पास रहो चाहे न्यारा,
इज्जत नहीं बंटया करती, चाहे धन बंटज्याओ सारा।।
दूसरी तरफ इन्होंने असंतोष, अलगाव, उपद्रव, आंदोलन, असमानता, असामंजस्य, अराजकता, आदर्श विहीनता, अन्याय, अत्याचार, अपमान, असफलता, अवसाद, अस्थिरता, अनिश्चितता, संघर्ष, हिंसा, पीड़ा, घुटन, ऊभ, दमन, गरीबी, भूख, चोरी, डकैती, बलात्कार, लूटमारी, बेकारी आदि की समस्याओं का कच्चा चिठ्ठा तो खोला ही गया है इसके साथ साथ नैतिकता, देश प्रेम, अपनी माटी के प्रति प्रेम, त्योहारों के प्रति आस्था, ईशवर के प्रति आस्था, संस्कृति के प्रति आग्रह, गिरते मुल्यों का विरोध आदि भी व्यापक स्तर पर मिलता है। इनके काव्य की अधिकांश रचनाओं में साधारण की मेहनत, समानता और प्रतिष्ठा का हिमायती स्वर मुखर हुआ है, जो कवि की 'शिरोमणि' व 'टन बी टन' की उपाधि को ज़िंदा करता प्रतीत होता है।
गुप्त लिफाफा बन्द, लगाकर त्योर देखना,
पढऩे वाले खत को, जल्दी करके गौर देखना,
आरपार सरदार छत्र, मण्डल का जोर देखना,
कथना में टन. वी. टन., उर्फ रघुनाथ की मोहर देखना।।
(सांग : पृथ्वीराज चौहान-चमोला)
ग्राम फिरोजपुर जिला मेरठ, जहाँ टन खोपड़ बसता है,
पांडव पत्नी आम खास म्य, टक्कर मार मरैगी,
उतरे सिर का चीर बता फिर, कैसे नार करैगी।।
(सांग : द्रौपदी चीरहरण)
इस तरह सांग विधा को सर्वोच्च शिखर तक पहुचाने वाले और उतरप्रदेश व हरियाणवी सांग को तपाकर कुन्दन बनाने वाले इस उतरप्रदेश व हरियाणवी जीवन शैली के चितेरे कवि का पार्थिव शरीर सन 1977 मे होली के दिन पंचतत्व मे लींन होकर ये वैतरणी नदी को पार करते हुये, इस निधि के बन्धनों से मुक्त हो गए और भौतिक संसार से विदा हो गए। अतः एक महान कवि के रूप मे अपने लोक साहित्य के स्वर्णिम अक्षरों को, हमारी आत्माओं मे चित्रित कर गये। सांग के उस स्वर्णकाल में इनकी आहुति मील का पत्थर साबित हुई जो अपनी अथाह एवं अनमोल विरासत छोडक़र चले गए।
टन बी टन के अनेकार्थी के रूप में एक उपाधि हैं जो रघुनाथ जी को उनके समकालीन कवियों व दो प्रमुख प्रिंटिंग प्रेसों ने दी थी
जैसे किलो-दो किलो, सेर-सवासेर धड़ी-पांच धड़ी मण-दो मणं क्विंटल -दो क्विंटल टन-दो टन
इसलिए 'टन दो टन' की बजाय वे थे 'टन-बी-टन' बी-बहु या बहुत अर्थात टन ही टन, जिन टनो का अंत नही अतः उनकी बुद्धि की कोई सीमा नही थी कि कितनी भारी व विस्तृत थी।
इसलिए 'टन टना टन' भी एक अर्थ है।
विशेष :- प. रघुनाथ ने एक बार एक श्रोता के द्वारा देवयानी के बारे मे प्रश्न करने की एवज में उन्होंने सम्पूर्ण देवयानी शर्मिष्ठा सांग तात्काली मंचन किया जो सांग विधा के इतिहास मे शायद ही कोई विरला सांगी सम्पूर्ण तात्कालिक सांग कर पाया हो।
- संदीप कौशिक