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रचना-प्रक्रिया / अजित कुमार

गीतों के पाटल …
गीतों के शतदल्…?
नहीं, नहीं-
गीतों के बादल ।
उगे आ रहे …
उड़े जा रहे …?
नहीं, नहीं-
मन के नभ पर आये औ’ बहे ।
कुछ-कुछ सकुचाये …
सिमटे-शरमाये …?
नहीं, नहीं-
ठिठके, सिहरे, लहराये ।
तरसे …
या पुलक-पुलक हरषे …?
नहीं, नहीं-
जन-मन की धरती पर बरसे ।
और ज़मीं नम हुई …
तपन ज़रा कम हुई …?
नहीं- नहीं-
बादल बरसे तो मन छुई-मुई, छुई-मुई ।
कितने ही बिम्बों की कौंध से प्रकाशित हो
अब कविता यों बनी कि-
“ गीतों के बादल
मन के नभ पर आये औ’ बहे ।
ठिठके, सिहरे, लहराये,
जन-मन की धरती पर बरसे …
बदल बरसे तो मन छुई- मुई, छुई-मुई ।“
हाय मैं । अनावृत मैं ॥
जगती के सम्मुख मैं ॥