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रचना / उपेन्द्र कुमार

जब भी शुरू होती है
यात्रा-शून्य से
ऊपर यो नीचे
उतरते या फलांगते
मेरे भीतर
उसी तरह करती है यात्रा
कविता

चट्टान से
फूटते फूल पौधे
विकसते पहाड़ / छूते हैं आसमान
शिखरों के शिखर
बर्फ से लदे
और घाटियों में
वन पाखी की आवाज
फैलती ही जाती है
औधड़ सुन्दरता की तरह

जिसे न कभी देखा, न सोचा
दृश्य अकल्पित
फिर से बिठाना पड़ता है जिन्हें
धरती पर
उगते फूल की तरह
जैसे यह कविता
यात्रा में चलती ही रहती है
रुक-रुक कर/चट्टान से लड़
चोरी से पराजित हो सोच में
पहुँचती है शिखर पर अमोल-सी
हर बार
उठाता हूँ कलम
पर शब्द नहीं
चित्रित होती है/एक नदी
लहरों के नर्तन में
फिर बन जाती है बसन्त

मैं जब भी
देखता हूं सोच को
बिम्बों में
तभी क्षुब्ध हो/छोड़ता हूँ भाषा
और लौटता हूँ
लय में जहाँ राग का
अनुरागमय रूप है

विफलता के / आलोक में
खोजता हूँ अभिव्यक्ति
मिली है अनुभूति
तो क्यों नहीं मिली बोध की पूर्णता
इसीलिए कविता में
विग्रहरत हूँ
शून्य में रचता हूँ सृष्टि
कविता की,
कविता के अपूरित / भविष्य की

जाने दो अहंकार
अगर वह सृजन है/तो उससे परे
वह कुछ भी नहीं है