समय पंख समेत उतर गया था
समुन्द्र किनारे
डूब कर हो रही थी उससे बातचीत
पानी पर थी लगातार हवा की कारीगरी
घोल रही थी खानें में नमक स्वाद
ख़ामोशी में भीतर की दबी आवाजें
आसमान में भरा था डब-डब पानी
नर्म हवा के असर में थी पत्तियाँ
पक्षियों की आवाजाही के बीच
कूँची में खास रंग लिये सूरज आ गया था
बहुत पास चाँद के घर में
जहाँ बह रही थी एक नदी
नींद में पानी का संगीत लिए
गुफाओं में बन रहे थे गीले भित्तिचित्र
परछाईंया भी डूबने लगी थें साथ-साथ
इस जीवंत और साँस लेते संसार में
नहला रही थी तरह-तरह की आवाजें
इबादत की तरह दिख रहे थे
सफ़ेद पंखों पर मचलते नीले अक्षर
शाम के रंग भींगने लगे थे
नाव रह-रह कर थरथरा रही थी अथाह जल में
मानो अपनी कविता की कुछ पंक्तियाँ