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रत्नसेन-बंधन-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी

मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी

मीत भै माँगा बेगि बिवानू । चला सूर, सँवरा अस्थानू ॥
चलत पंथ राखा जौ पाऊ । कहाँ रहै थिर चलत बटाऊ ॥
पंथी कहाँ कहाँ सुसताई । पंथ चलै तब पंथ सेराई ॥
छर कीजै बर जहाँ न आँटा । लीजै फूल टारिकै काँटा ॥
बहुत मया सुनि राजा फूला । चला साथ पहुँचावै भूला ॥
साह हेतु राजा सौं बाँधा । बातन्ह लाइ लीन्ह, गहि काँधा ॥
घिउ मधु सानि दीन्ह रस सोई । जो मुँह मीठ, पेट बिष होई ॥

अमिय-बचन औ माया को न मुएउ रस-भीज ?।
सत्रु मरै जौ अमृत, कित ता कहँ बिष दीज ? ॥1॥

चाँद घरहि जौ सूरुज आवा । होइ सो अलोप अमावस पावा ॥
पूछहिं नखत मलीन सो मोती । सोरह कला न एकौ जोती ॥
चाँद क गहन अगाह जनावा । राज भूल गहि साह चलावा ॥
पहिलौं पँवरि नाँघिजौ आवा । ठाढ होइ राजहि पहिरावा ॥
सौ तुषार, तेइस गज पावा । दुंदुभि औ चौघडा दियावा ॥
दूजी पँवरि दीन्ह असवारा । तीजि पँवरि नग दीन्ह अपारा ॥
चौथि पँवरि देइ दरब करोरी । पँचईं दुइ हीरा कै जोरी ॥

छठइँ पँवरि देइ माँडौ, सतईं दीन्ह चँदेरि ।
सात पँवरि नाँघत नृपहिं लेइगा बाँधि गरेरि ॥2॥

एहि जग बहुत नदी-जल जूडा । कोउ पार भा, कोऊ बूडा ॥
कोउ अंध भा आगु न देखा । कोउ भएउ डिठियार सरेखा ॥
राजा कहँ बिधाय भइ माया । तजि कबिलास धरा भुइँ पाया ॥
जेहि कारन गढ कीन्ह अगोठी । कित छाँडै जौ आवै मूठी ?॥
सत्रुहि कोउ पाव जौ बाँधी । छोडि आपु कहँ करै बियाधी ॥
चारा मेलि धरा जस माछू । जल हुँत निकसि मुवै कित काछू ?॥
सत्रू नाग पेटारी मूँदा । बाँधा मिरिग पैग नहिं खूँदा ॥

राजहि धरा, आनि कै तन पहिरावा लोह ।
ऐस लोह सो पहिरै चीत सामि कै दोह ॥3॥

पायँन्ह गाढी बेडी परी । साँकर गीउ, हाथ हथकरी ॥
औ धरि बाँधि मँजूषा मेला । ऐस सत्रु जिनि होइ दुहेला !॥
सुनि चितउर महँ परा बखाना । देस देस चारिउ दिसि जाना ॥
आजु नरायन फिरि जग खूँदा । आजु सो सिंघ मँजूषा मूँदा ॥
आजु खसे रावन दस माथा । आजु कान्ह कालीफन नाथा ॥
आजु परान कंस कर ढीला । आजु मीन संखासुर लीला ॥
आजु परे पंडव बदि माहाँ । आजु दुसासन उतरीं बाहाँ ॥

आजु धरा बलि राजा, मेला बाँधि पतार ।
आजु सूर दिन अथवा, भा चितउर अँधियार ॥4॥

देव सुलैमा के बँदि परा । जह लगि देव सबै सत-हरा ॥
साहि लीन्ह गहि कीन्ह पयाना । जो जहँ सत्रु सो तहाँ बिलाना ॥
खुरासान औ डरा हरेऊ । काँपा बिदर, धरा अस देऊ !॥
बाँधौं, देवगिरि, धौलागिरी । काँपी सिस्टि, दोहाई फिरी ॥
उबा सूर, भइ सामुँह करा । पाला फूट, पानि होइ ढरा ॥
दुंदुहि डाड दीन्ह, जहँ ताईं । आइ दंडवत कीन्ह सबाईं ॥
दुंद डाँड सब सरगहि गई । भूमि जो डोली अहथिर भई ॥

बादशाह दिल्ली महँ, आइ बैठ सुख-पाट ॥
जेइ जेइ सीस उठावा धरती धरा लिलाट ॥5॥

हबसी बँदवाना जिउ-बधा । तेहि सौंपा राजा अगिदधा ॥
पानि पवन कहँ आस करेई । सो जिउ बधिक साँस भर देई ॥
माँगत पानि आगि लेइ धावा । मुँगरी एक आनि सिर लावा ॥
पानि पवन तुइ पिया सो पिया । अब को आनि देइ पानीया ?॥
तब चितउर जिउ रहा न तोरे । बादसाह है सिर पर मोरे ॥
जबहि हँकारे है उठि चलना । सकती करै होइ कर मलना ॥
करै सो मीत गाँढ वँदि जहाँ । पान फूल पहुँचावै तहाँ ॥

जब अंजल मुँह, सोवा; समुद न सँवरा जागि ।
अब धरि काढि मच्छ जिमि, पानी माँगति आगि ॥6॥

पुनि चलि दुइ जन पूछै आए । ओउ सुठि दगध आइ देखराए ॥
तुइँ मरमुरी न कबहुँ देखी । हाड जो बिथुरै देखि न लेखी ॥
जाना नहिं कि होब अस महूँ । खौजे खौज न पाउब कहूँ ॥
अब हम्ह उतर देहु, रे देवा । कौने गरब न मानेसि सेवा ॥
तोहि अस बुत गाडि खनि मूँदे । बहुरि न निकसि बार होइ खूँदे ॥
जो जस हँसा तो तैसे रोवा । खेलत हँसत अभय भुइँ सोवा ॥
जस अपने मुह काढे धूवाँ । मेलेसि आनि नरक के कूआँ ॥

जरसि मरसि अब बाँधा तैस लाग तोहि दोख ।
अबहुँ माँगु पदमिनी, जौ चाहसि भा मोख ॥7॥

पूछहिं बहुत, न बोला राजा । लीन्हेसि जोउ मीचु कर साजा ॥
खनि गडवा चरनन्ह देइ राखा । नित उठि दगध होहिं नौ लाखा ॥
ठाँव सो साँकर औ अँधियारा । दूसर करवट लेइ न पारा ॥
बीछी साँप आनि तहँ मेला । बाँका आइ छुआवहिं हेला ॥
धरहिं सँडासन्ह , छूटै नारी । राति-दिवस दुख पहुँचै भारी ॥
जो दुख कठिन न सहै पहारू । सो अँगवा मानुष-सिर भारू ॥
जो सिर परै आइ सो सहै । किछु न बसाइ, काह सौं कहै ?॥

दुख जारै, दुख भूँजै, दुख खोवै सब लाज ।
गाजहु चाहि अधिक दुख दुखी जान जेहि बाज ॥8॥


(1) मीत भै = मित्र से । सेराई = समाप्त होता है । छर = छल । बर = बल । न आँटा = नहीं पूरा पडता है । हेतु = प्रेम । घिउ मधु । कहते हैं, घी और शहद बराबर मिलाने से विष हो जाता है । मुँह = मुँह में । पेट = पेट में ।

(2) चाँद पद्मावती । सूरुज=बादशाह । नखत = अर्थात् पद्मावती की सखियाँ । अगाह = आगे से, पहले से । राज भूलल = राजा भूला हुआ है । पहिरावा = राजा को खिलात पहनाई । चौघडा = एक प्रकार का बाजा । माडौ = माडौगढ । चँदेरि = चँदेरी का राज्य । गरेरि = घेरकर । एहि जग...(यह संसार समुद्र है) इसमें बहुत सी नदियों का जल इकट्ठा हुआ है, अर्थात् इसमें बहुत तरह के लोग हैं । आगु = आगम । डिठियार = दृष्टिवाला । सरेखा = चतुर । तजि कबिलास....पाया = किले से नीचे उतरा; सुख के स्थान से दुःख के स्थान में गिरा । अगोठी = अगोठा, छेका, घेरा । जल हुँत...काछू = वही कछुवा है जो जल से नहीं निकलता और नहीं मरता । सत्रू....मँदा = शत्रु रूपी नाग को पेटारी में बंद कर लिया । पैग नहीं खूँदा = एक कदम भी नहीं कूदता । चीत सामि कै दोह = जो स्वामी का द्रोह मन में बिचारता है ।

(4) ऐसे शत्र दुहेला = शत्रु भी ऐसे दुख में न पडे । बखाना = चर्चा । जग खूँदा = संसार में आकर कूदे । मूँदा बंद किया । मीन = मत्स्य अवतार । पंडव = पांडव ।

(5) देव = राजा, दैत्य । सुलेमाँ = यहूदियों के बादशाह सुलेमान ने देवों और परियों को वश में किया था । बँदि परा = कैद में पडा । सत-हरा = सत्य छोडे हुए; बिना सत्य के । धरा अस देउ = कि ऐसे बडे राजा को पकड लिया । दुंदुहि = दुंदुभी या नगाडे पर । डाँड दीन्ह = डंडा या चोट मारी ।

(6) बँदवाना = बन्दीगृह का रक्षक, दरोगा । जिउ-बधा = बधिक, जल्लाद । अगिदधा = आग से जले हुए । साँस भर = साँस भर रहने के लिये पानीया = पानी । जिउ रहा = जी में यह बात नहीं रही कि । सकती = बल । जब अंजल मुँह सोवा = जब तक अन्न-जल मुँह में पडता रहा तब तक तो सोया किया ।

(7) मरपुरी = यमपुरी हाड जो....लेखी = बिखरी हुई हड्डियों को देखकर भी तुझे उसका चेत न हुआ । महूँ = मैं भी । खोज = पता । बार होइ खूँदे = अपने द्वार पर पैर न रखा । धूवाँ = गर्व या क्रोध की बातत । तस =ऐसा । माँग = बुला भेज । गढवा = गड्ढा । चरनन्ह देइ राखा = पैरों को गड्ढे में गाड दिया । बाँका = धरकारों का टेढा औजार जिससे वे बाँस छीलते हैं । हेला = डोम । सँडास = संसी, जिससे पकडकर गरम बटलोई उतारते हैं । गाजहु चाहि = ब्रज से भी बडकर । बाज = पडता है ।