उसके लिए, जो लाखों के ज़ख़्मों से होकर गुज़रता है
उसके लिए, जिसकी तोपों ने बाग़ीचे के सारे गुलाब रौंद डाले हैं
जो रात में तोड़ता है खिड़कियों के शीशे
जिसने जला डाले हैं बाग़ीचे और अजायबघर
और जो गाता है आज़ादी के नग़मे
जिसने पीस डाला है चौराहों पर गा रही बुलबुलों को
जिसके जहाज़ बच्चों के ख़्वाबों पर बम गिराते हैं
जो आसमान के इन्द्रधनुषों को कुचल डालता है
आज की रात, नामुमकिन जड़ों से उभरे बच्चे तुमसे यह ऐलान करते हैं
आज की रात, रफ़ाह के बच्चे कहते हैं :
‘बिस्तर की चादरों में नहीं गूँथी हैं हमने कभी चोटियाँ
नहीं थूका है कभी हमने लाशों पर, न ही कभी उखाड़े हैं उनके सोने के दाँत
फिर क्यों छीनते हो तुम हमारा सोना और गिराते हो हम पर बारूद ॽ
क्यों बनाते हो अरबी बच्चों को यतीम ॽ
शुक्रिया, हज़ार बार शुक्रिया !
कि हमारी उदासी ने जवानी में क़दम रखे हैं
और अब हम लड़ेंगे ।’