रब्बरक गाछ सँ पृथ्वी झँपि गेल, रब्बरक ख़ूब माँग अछि;
कियैक त'
सब क्यो आजुक समय में
शिल्पी भ' गेल अछि ।
ओ सब चित्र बनबैछ,
आ'रब्बर घसि घसि कए मेटबैछ - बनबैछ आ' मेटबैछ ।
नहि जानि, एतेक शिल्पी देखि आदि शिल्पी क्षुब्ध भेल छथि वा नहि !
नहि जानि, ओ सोचैत हेताह कि नहि,
जे हुनकर सृष्टि व्यर्थ भ' गेल छन्हि।
कदाचित् कोनो दिन
नगर-जनपद कें ओ मेटा देथिन्ह
मेटा देथिन्ह इतिहासक पन्ना ।