मैं ऋतु का नाम नहीं लूँगा
एक दु:ख कहूँगा अपने शिवालिक का
मैं फूल का नाम नहीं लूँगा
एक रंग कहूँगा अपने शिवालिक का
मैं दृश्य के ब्यौरों में नहीं जाऊँगा
आप देखना कि मैं कहाँ जा पाया हूँ
कहाँ नहीं
हिमालय की छाँव में
शिवालिक होना मैं जानता हूँ
उस ऋतु में
जब धसकते ढलानों से
मिट्टी और पत्थर गिरते हैं मकानों पर
एक कवि चाहता था
कि शिवालिक की छाँव में कहीं
घर बना ले
उस घर पर
जब ऋतुओं का मलबा गिरे
तो कोई नेता
मुआवज़ा लेकर न आए
कविता में लिखे हिसाब
गुज़री ऋतुओं के
तो चक्र में कहीं कोई टीसता हुआ
वसंत न फँस जाए
किसी भाई को पुकारे कोई बहन
तो उसके स्वर की नदी
रेता बजरी के व्यापारियों से
बची रहे
भरी रहे जल से
चैत में हिमालय का हिम भर नहीं गलता
ससुराल में स्त्रियों का दिल भी जलता है
मेरे शिवालिक पर
दरअसल मुझे महीने का नाम भी नहीं लेना था
पर रवायत है रितुरैण की
चैत का नाम ले लेना चाहिए।