फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘रसप्रिया’ को पढ़ते हुए
असमाप्त ही रह जाती है रसपिरिया की कथा
रह-रह फूटती, मिरदंगिया की हूक
कि रसपिरिया नहीं सुनेगा मोहना !
देख न ! आ गया कैसा कठकरेज वक़्त
कि पहले रिमझिम वर्षा में लोग गाते थे बारहमासा
चिलचिलाती धूप में बिरहा, चाँचर, लगनी
अब तो भूलने लगी है कूकना कोयल भी
पंचकौड़ी मिरदंगिया को पता होगा ज़रूर
अगर परमात्मा कहीं होगा, तो होगा रस-रूप ही
तभी तो टेढ़ी उँगली लिए
बजाता रहा आजीवन मृदंग
और इस मृदंग के साथ फूटता रहा रमपतिया का करूण-क्रन्दन
कि मिरदंगिया है झूठा! बेईमान! फरेबी!
ऐसे लोगों के साथ हेलमेल ठीक नहीं बेटा
भौचक है मोहना !
ठीक मेरी तरह
इस अपरूप प्रेम की कथा में।