सुनकै पराई पीर गल जाय नैनूँ-घाईं
एइ आय आदमी के हिरदे की सरबस,
भुलै निजी राग-रंग, बना देत बिस्वरूप
मूल सुर तंत्रिका सें जोर देत बरबस;
छीन करै छुद्र भाब, दिब्ब छबि प्रगटाबै
बस करैं बज्रधारी बिना तीर-तरकस,
और सब रस आयँ दरबारी सहना-से
छत्रपति स्वामी एक साँचौ-सौ करुन रस।