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रस स्रवण / सुमित्रानंदन पंत

रस बन रस बन,
प्राणों में!
निष्ठुर जग निर्मम जीवन
रस बन रस बन
प्राणों में!

अंतस्तल में यथा मथित हो,
भाग भंगि में ज्ञान ग्रथित हो,
गीति छंद में प्रीति रटित हो,
क्षण क्षण छन
रस बन रस बन
प्राणों में!

तम से मुक्त प्रकाश उदित हो
घृणा युक्त उर दया द्रवित हो
जड़ता में चेतना अमृत हो
गरज न घन,
रस बन रस बन
प्राणों में