॥लगनी॥
रहली मैं कुबुद्ध संग रहली, साँझ के सुतल सबेरियो न उठली,
संतों हो! बालम सत्य गुरु प्रीतम, सिय तोर सालल रे की॥
चार पहर रात बीति जतसारियो, दसो द्वार पर लागल केवड़िया,
संतो हो! बिनु कुंजी पट खोलब, चित न मोर डोलल रे की॥
गेहुवाँ सुखाय गेल, जतवा भीतर भेलै, हथरा धरत मोरि बहियाँ मुरुक गेलै,
संतो हो! झिर-झिर बहत पवनवाँ, पीसन मन लागल रे की॥
सुरति सुहागिनी अपने पिया लगि भैलूँ बैरागिनी,
संतो हो! सब सोअल मृगा जागल, पिया बाट जोहल रे की॥
साहेब कबीर यह गावै जतसरियो, समुझि-समुझि पग धरहु सजनिया,
संतो हो! राह भुलायल कैसे घर के जायल रे की॥