रहा छाया डाल
नयन के दर्पण-पटल पर-
अन्धतमस कराल।
भूत-भव्य-भविष्य का कुण्डलित वलय वितान,
मूल्य उनका आँकने में हो न हतप्रभ ज्ञान,
मनीषा शृंखलित, ग्रन्थि-निबद्ध चक्षु विशाल।
कभी होता हर्ष, अनुशय कभी होता मोह,
कभी करती व्यग्रता से बुद्धि ऊहापेाह,
बाँध देता बन्धनों में कभी भ्रम का जाल।
दलें मर्दित कर न शतश5 अशनि-शम्पा-पात,
विष न विष, विष विषमता ही चित्त की उद्भ्रान्त,
खिले समता का हृदय में गन्धपूत मृणाल।
(15 जनवरी, 1974)