Last modified on 18 मई 2018, at 16:11

रह-रह कर बज उठती वीणा अन्तर की / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

रह-रह कर बज उठती वीणा अन्तर की,
जा रही सधी सीमा में पंचम स्वर की।

आवरण पड़ा हट गया ज्ञान-दर्शन पर,
खिंच गई रश्मि-रेखा-सी भीतर-बाहर।

भर मन-अम्बर रंगों के घन से घुमड़ा,
सागर ही जैसे हृदयराग का उमड़ा।

उठ रही भैरवी की मरोर अनजानी,
दिय में गहरे घावों की पीर पुरानी।

बन गई वेदना आँखों में अंजन-सी,
गीतों के गुंजन में नव अभिव्यंजन-सी।

संगीत उतर आया क्षर में, अक्षर में,
सब एक हो गए स्वर के लहर-भँवर में।

(सितम्बर, 1976)