Last modified on 14 मई 2018, at 10:32

रह गए परदेस में / नईम

रह गए परदेस में वो घर बसा के,
हो गई मुद्दत नहीं बहुरे ठहाके।
रही गए।

बारहा चाहा कि अपनी रौ-रविश में,
लौट आएँ फिर समय की परवरिश में,

किंतु दुर्दिन पड़े कोई क्यों सुनेगा?
रह गए हम शर्म-सा बस कसमसा के।

साँप हों या सँपेरे हों, हमवतन ये,
आस्तीनों में रहे मेरी जतन से।

पोटली विष की कहीं तो फूटनी थी
बच न पाए जिंदगी के कोई भी हल्के इलाके।

लाभ होने की जगह घाटे हुए हम,
बच गए, गर वक्त के काटे हुए हम।

लड़ेंगे फिर, फिर महाभारत लड़ेंगे,
दक्षिणा में अँगूठे दोनों कटा के।