रागी-विरागी सखा रामनन्दन,
जन-जन के मन-मन में तेरा अभिनन्दन।
मिली क्षीण काया, पर व्यापी न माया,
जिधर पग बढ़ाया, उधर ही जमाया।
किये शुभ करम से विवश करने वन्दन,
जन-जन के मन-मन में तेरा अभिनन्दन।
शिक्षा की सरिता जो तुमने बहायी,
दीक्षा की दुनियां जो तुमने दिखायी।
लिये मन्त्र तुमसे किये ज्ञान-अर्जन,
जन-जन के मन-मन में तेरा अभिनन्दन।
पुस्तक पढ़ाकर बने तुम न शिक्षक,
तजे लोभ, भय बन गये धर्म-रक्षक।
तेरे क्रोध से मिट गये काम नर्त्तन,
जन-जन के मन-मन में तेरा अभिनन्दन।
कर्त्तव्य पालन बना तेरी पूजा,
परहित सदृश धर्म समझे न दूजा।
दिखायी दया दीन पर वाणी-नन्दन,
जन-जन के मन-मन में तेरा अभिनन्दन।
हुआ राष्ट्र सम्मानित गुण से तुम्हारे,
पुरस्कृत किया राष्ट्रपति ने हमारे।
किया दुष्टता-पाप का तुमने मदन,
जन-जन के मन-मन में तेरा अभिनन्दन।
बने तुम प्रकृति के ही पावन पुजारी,
सतत सादगी की घड़ी हो गुजारी।
सुमन वाटिका के सुयश करते गुंजन,
जन-जन के मन-मन में तेरा अभिनन्दन।
लुटाये निरन्तर सदा अपने धन को,
नियंत्रित किये तुम सतत अपने मन को।
किया तुमने दिल से है मानव का पूजन,
जन-जन के मन-मन में तेरा अभिनन्दन।
कलम से बही है सदा ज्ञान-गंगा,
श्रम से सरसती है यमुना-तरंगा।
सुयश कह रही शारदा हो मगन मन,
जन-जन के मन-मन में तेरा अभिनन्दन।
रागी-विरागी सखा रामनन्दन,
जन-जन के मन-मन में तेरा अभिनन्दन।
-समर्था,
14.10.1987 ई.