काली रात के तारों पर
बजती हुई
घनीभूत धुन है तुम्हारी
देह:
मीड़ो-मुरकियों की झूल
में उन्मन
खिंचा जाता हूँ
समाने राग के आवृत में।
मृत्यु से भी अधिक
कैसा दुर्निवार खिंचाव
आह माँ, माँ आह
(1980)
काली रात के तारों पर
बजती हुई
घनीभूत धुन है तुम्हारी
देह:
मीड़ो-मुरकियों की झूल
में उन्मन
खिंचा जाता हूँ
समाने राग के आवृत में।
मृत्यु से भी अधिक
कैसा दुर्निवार खिंचाव
आह माँ, माँ आह
(1980)