रेल के रास्ते से गुजरते
देखते जाते हैं हम साँभर झील-मीलों तक।
खारी गन्ध से नाक भरते।
यहाँ कहाँ पेड़-पत्ता, फल-फूल, भ्रमर-गुंजार?
यहाँ तो बस तीखी गड़वी गन्ध, हवा, खार,
हरे-सफेद गुलाबी चकत्ते वाले-से समतल पानी का विस्तार।
इसमें जो पड़ा कागज, पेड़-पत्ता, कपड़ा-लत्ता-
उसका तो बस, एक ही रूपान्तरण-नमक, नमक, नमक,
खारा नमक, मीलों तक।$ $ $
साँभर झील से भी लम्बी-चौड़ी हैएक झील और भी बड़ी-
जिसमें सब समान हैं
फूल हो या काँटा, पर्वत हो या कंकड़ी:
आकांक्षा, सम्बन्ध, मुसकान, प्रतीति,
कला, सौन्दर्य, साधना, जीवन-मूल्य, प्रीति-
कुछ भी डालो, सब कुछ उसमें गल-सड़कर हो जाता है-
राजनीति, राजनीति, राजनीति!
अँधेरी रात में, बाढ़ में गले तक पानी में डूबते-
सुरक्षित स्थान के लिए विपदाग्रस्त लोग भागते हैं जैसे-
वैसे ही-‘बचो, बचो’ करते हम सब भाग रहे हैं
अपनी पोटलियाँ लादे-
राजनीति की साँभर-झील में से, बोझ से झुकाए अपने काँधे।
1986