राजा ‘राजसिंह’ मेवाड़क अधिपति छला महान
‘भीमसिंह’ ‘जयसिंह’ पुत्र दुइ’ बल पौरुषेँ समान
जेठि महारानीक जेठ सन्तान ‘भीम’ युवराज
सहजहिँ ओं राज्यक अधिकारी उचित हुनक सिर ताज
किन्तु छोट सन्तान ‘अजय’ छोटकी रानीक महत्त्व
स्नेह-पा. राणाक परम, तेँ चाहथि राज्यक स्वत्ब
राज - पुरुषकेँ मिला-जुला कय अजय करय षड्यन्त्र
रहितहुँ छोट मोट हम भाग्यक हमरहि शासन-तन्त्र
राजनीति ओ कुल-परम्परेँ जेठ होथि अभिषिक्त
बहुतो प्रजा भीमहिक पक्षेँ बाजथि कथा नियुक्त
राजकुलक द्वेषाग्नि धधकि उठले, दुहु दल जरि जैत
नगर-गाम धरि अगड़ाही पसरल, से कोना मिझैत
सोचथि राजसिंह की दुर्गति, लिखल बुढ़ारी काल
मचल यादवी आँखिक सोझाँ फुलक नाश तत्काल
हमरहि पाप आइ अछि कारण अजयक मन बढ़ि गेल
भीमसिंहकेँ उचित स्वत्वसँ हटबय सत्ता लेल
सोचि-विचारि अजयकेँ बजबौलनि राणा एकान्त
कहलनि, जेठ भायकेँ राजा अहीँ बनाउ नितान्त
हम भीमहुँसँ बढ़िकय मानल अहिँक माय महरानी
आइ कुलक रक्षाक उदेसेँ स्वयं बनिअ अहँ दानी
तमकि उठल अति उदय, जेठ भेनहि की भेटय सत्ता?
हमर पक्षमे राजपुरुष सभ हमरहि राज्य महत्ता
मौन महाराणा न बाजि सकला पुनि एको बात
अजय तमकि चलि देल पुनः बजबौल भीमकेँ तात
सोचथि भीम, महाराणा की कहता आइ बजाय?
सदा कुपित हमरा पर, अजयक रहला सदा सहाय
किन्तु अजय केर जय न देब होअय बल रहौ असीम
पिता पक्ष बरु गहथु न मानव हुनक कथा हम भीम
किन्तु जाय देखइत छथि तँ राणाक दोसरे रंग
आँखि सजल, करुणा छलछल गद्गद स्वर, नेह प्रसंग
‘तात! राज्य पर संकट विकँ, सम्हारिअ आगाँ आबि
भ्रातृद्रोह-जर्जर राज्यक नहि जानी, की अछि भावि
वत्स! कही जे करिअ, न सोचिअ यद्यपि कतबहु हानि
एक मात्र ई वचन पिता केर लेब अहाँ धु्रव मानि
हमर खंग’ लिअ हाय, न करबे मन कनिओ संकोच
राज्यक हितकेँ सोचि न पुनि विचलित मन करबे रोच
यदपि अजय अछि प्राणहुसँ प्रिय किन्तु आइ कर्तव्य
प्रेरित करइछ नव्य साहसक हित बरु क्रिया अभव्य
अहाँ जेठ पुनि श्रेष्ठ गुणहुँसँ अहिँक राज्य अधिकार
किन्तु अजय मानल न नीति ई जीवन भरि अविचार
तेँ ई लय तरुआरि हमर वचनेँ अहँ सहसा जाय
लिअ उतारि गर्दनि अजयक निष्टंक राज्य भय जाय।”
भीमसिंह राणाक वचन सुनि चकित चरण धय लेल
“राज्यक हित, प्रिय अहँक हमर कर्तव्य अन्यथे भेल
करथु अजय शासन राज्यासनसँ हमरे छथि भाइ।
हुनक हेतु हम जन्मभूमिकेँ छोड़ि दूर चलि जाइ।“
राणा केर दुहु नयन नोर-धारेँ बहइत सुनि बात
तावत त्यागी भीमसिंह चलि देल कतहु अज्ञात।।