मानस के रहने वाले हे राजहंस सुकुमार!
इस जगती में भटक गए क्या तज अपना संसार।
वह संसार, न दुख का जिसमें होता है व्यापार।
करते थे तुम साथ प्रिया के प्रमुदित जहाँ विहार।
मोती का चुगना संतत औ पीना स्वच्छ दुग्ध-सा जल!
कितना मधुर तुम्हारे पावन झरनों का कलकल-छलछल।
अमल प्रेम की सरिता जिसमें बहती रहती है अविरल।
जहाँ नहीं आकुलता ऐसी, जहाँ न ऐसा कोलाहल!
हँसते आए थे, पल भर में क्यों तुम होते जाते म्लान!
क्या कोई स्मृति तुम्हें कर रही धुला-धुला करके प्रियमाण!
व्यग्र दिखते हो, क्या वायस जाने की तैयारी है?
रुको तनिक, सुनते जाओ जीवन की ज्वाला का आख्यान।
-1934 ई.