Last modified on 7 सितम्बर 2011, at 16:14

रात/ सजीव सारथी

चाँद को सीने से लगाए,
सितारों की सेज पर,
टिमटिमा रही है रात.

सूरज की थकी हुई,
आँखों से बहती,
सपनों की शराब,
हसीन तस्सवुरों के महल,
चुभती हुई उलझनों से परे,
नींद के झरोखों से झांक कर,
मुस्कुरा रही है रात.

नींद जहाँ नही सोयी है,
उन आँखों में भी है,
बोलती तन्हाईयों की महक,
दर्द की खामोश कराह,
जुगनुओं की कौंधती चमक,
थमी थमी हलचल को,
फ़िर सुला रही है रात.

और भी हैं कुछ,
आवारा से ख़्याल,
हवाओं मे घुले घुले से,
जिनके पैरों मे चक्कर है,
उनको होंठों से चूमकर,
नगमा सा बन कर कुछ,
गुनगुना रही है रात.