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रात / सज्जाद बाक़र रिज़वी

आँधियाँ आसमानों का नौहा ज़मीन को सुनाती हैं
अपनी गुलोगीर आवाज़ में कह रही हैं
दरख़्तों को चिंघाड़
नीची छतों पर ये रक़्स आसमानी बगूलों का
ऊँची छतों के तले खेले जाते ड्रामा का मंज़र है
ये उस ज़ुल्म का इस्तिआरा है
जो शह-ए-रग से हाबील कि गर्म ओ ताज़ा लहू बन के उबला है
आँधियों में था इक शोर-ए-कर्ब ओ बला
और मैंने सुना कर्बला कर्बला
रात के सहम से अन कहे वहम से
बंद आँखों में वहशत ज़दा ख़्वाब उतरा
सुब्ह अख़बार की सुर्ख़ियाँ बन गया