Last modified on 7 फ़रवरी 2009, at 08:36

रात / स्वप्निल श्रीवास्तव


रात इतनी लम्बी है

मैंने सोचा नहीं था

रात लम्बी होती जा रही है


काली-डरावनी रात गलतियों को छूट देती हुई

अराजकता का माहौल रचती है

चोर-डकैत टोह में हैं

मकान के नक्शे उनके हाथों में

और उनकी नज़र

इमारत की कमज़ोर दीवारों पर है


रात के चारों तरफ़ अंधेरा है

नदी है, पुल है, पहाड़ है

सूर्य इनसे कई मील दूर है, निर्वासन में

मांद में भेड़िया करवट बदलता है

तो जंगल डर से काँपता है


घड़ी की सुईयाँ कलाइयों में ठहर गई हैं

दीवारों से गायब है कलैंडर

समय के बारे में अन्दाज़ा लगाते हुए

गणितज्ञ का अनुभव अंधेरे में बदल गया है

रात शहर में है

या शहर में रात

रात दोनों जगह है


कुछ देखती हुई आँखें

अंधेरे की वज़ह से

अपने पास लौट आती हैं

लगता है, चेहरे पर आँख की जगह

कोई खाली जगह है


अपने ही हाथ जिस्म तक नहीं पहुँच पाते

जहाँ थे, वहीं ठहरे हैं लोग

टंगी हुई बाल्टियों में पानी की जगह ख़ून है

दृश्य जिधर खुलते हैं उधर हत्यारे

अपने हथियार पैना करते हुए दिखाई देते हैं

इतनी लम्बी रात

सदी की दिनचर्या में कभी नहीं आई

कार्यक्रम को निगलते हुए

आगे बढ़ रहा है अंधेरा

मुंडेर पर बैठे हुए मुर्गे की जीभ

तालुओं में चिपक गई है

वह केवल पंख ही फड़फड़ा पाता है

दिन कितनी दूर है?

लोग एक-दूसरे से पूछते हैं

जवाब के लिए जब मुँह खोलता है माहौल

तो उत्तर स्वयं सबके विरोध में चला जाता है