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रात की फाँक / मनोज कुमार झा

मैं हाँफता रहा
अपने क्रोध मे धुँआता
वो सो गई बच्चे को पँजिया
अब मेरी आग मेरी राख से दबी
मैनें ही फेंका था जल का पात्र
मेरा कोई शरण नहीं
रात का हाथ खाली
नींद मेरे रक्त में अम्ल हो नाचती
मैं यही सोचता देह को तबे पर पलटता
कि सुबह तक यह फाँक इसी स्त्री की
नींद में घुल जाए
धुल जाए इसके सपनों से ।