रात खाई में पड़ी है,
जा छुपे दिन खंदकों में!
नाम अपना खोजता हूँ,
गुमशुदा या बंधकों में।
बँट रहे हैं रस्सियों में
मूँज-से हम,
खोखली इतिहास की
अनुगूँज से हम!
रह गए होकर विभाजित
सिख, मराठा, गोरखों में।
मोर्चा खाई हुई-
जंगी व्यवस्था,
अन्न से भी
आदमी का गोश्त सस्ता-
धो रहे हम तिलक छापे
गोमती या गंडकी में।
सिसकियाँ सहमी
ठहाके जड़ हुए हैं,
धर्म, धन के-
संतुलन घट-बढ़ हुए हैं!
रात बारूदों धँसी तो
जा बसे दिन गंधकों में।