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रात गुजर गई / वर्षा गोरछिया 'सत्या'

रात गुजर रही है
कमरे की बिखरी चीज़ें उठाते हुए
सब कुछ बिखरा है
तुम्हारे जाने के बाद
तुम्हारी चहलकदमियां
घूमती रहती है आँगन में
सांसे कुछ फुसफुसा जाती है
कानो में मेरे
बिस्तर की सलवटें अकेली हैं
नाराज है तुमसे
बातों के ढेर लगे है
एक एक को लपेटती हूँ
और रखती जाती हूँ अलमारी में
गठरियाँ हैं कुछ
मुस्कुराहटो की
अलमारी के ऊपर रख दी है
कमरे का फर्स ठंठा है
गीला है मेरे आंशुओ से
उफ़ ! बालकनी में चाँद भी तो है
कितना कुछ बिखरा है
थककर चूर हूँ
कितनी यादें बगल में लेटी हैं
नींदे माथे को चूम रही है
रात गुजर गई
कमरे की बिखरी चीज़ें उठाते हुए