रात तुम्हारे कर में
मैंने निज कपोल रखकर पूछा था धीमे स्वर में--
'प्रिये एक दिन मैं न रहूँ जब
पथ की और देखती अपलक
क्या फिर याद करोगी ये सब
बातें सूने घर में?'
मुख मेरा करतल से ढँककर
सिमटी थी उर में तुम सत्वर
और चू पड़े थे गालों पर
आँसू दो उत्तर में
तभी चाँद की दिशि घन आया
प्रश्न वही निशि ने दुहराया
धरती से अंबर तक छाया
अंधकार पल भर में
रात तुम्हारे कर में
मैंने निज कपोल रखकर पूछा था धीमे स्वर में