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रात बन जाऊँ / संतोष श्रीवास्तव

मुझे अच्छा लगता है
डूबते हुए सूरज को देखना
सूरज का वह घर
लाल दीवारें हैं जिसकी
सुरमई, सिलेटी
मटमैली-सी बुर्जियाँ हैं जिसकी
मेरी इच्छा होती है
कि मैं भी जा सकूं
लाल दीवारों में खुलते
दरवाजे तक
जहाँ मैं उतार सकूं
अपनी शर्म को
जूतों की तरह
ड्योढ़ी पर
अपने दर्द को
कपड़ो की तरह
खूंटी पर
और अपने शरीर को
ऐसे छोड़ सकूं
अलग-थलग पड़ा हुआ
जैसे सामान हो
किसी
विदा हुए मुसाफिर का
और तब मैं
धरती, आकाश
पाताल तक
हवा कि तरह
हल्की हो
बहती रह सकूं
अपने छोड़े हुए
शरीर, दर्द और शर्म को
देख-देख
हंसती रह सकूं
ढलते हुए सूरज की
बाहों में डूब जाऊँ
रात बन