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रात भर / सुरेश सलिल

रात भर था जगा, सुबह नींद आ गई
था मुसलसल<ref>लगातार</ref> चला, सुबह नींद आ गई

रह गया दर खुला, इतना नाचार<ref>विवश</ref> था
कोई सब ले उड़ा, सुबह नींद आ गई

रात भर ज़िन्दगी रक़्स करती रही
जब थमा सिलसिला, सुबह नींद आ गई

शब तो रौशन रही शम-ए-उम्मीद से
मोम जब बह चला, सुबह नींद आ गई

सुबह नींद आ गई ,क़िस्सा ये मुख़्तसर<ref>संक्षिप्त</ref>
डाल दो अब रिदा<ref>चादर</ref>, सुबह नींद आ गई

शब्दार्थ
<references/>