Last modified on 11 अगस्त 2012, at 17:06

रात में / अज्ञेय

 
तुम्हारी आँखों से
सपना देखा। वहाँ।

अपनी आँखों से
जाग गये। यहाँ।

झील। पहाड़ी पर मन्दिर
कुहरे में उभरा हुआ।
धूप के फूल जहाँ-तहाँ
जैसे गेहूँ में पोस्ते।
और वह एक (किरण) कली
कलश को छूती हुई चलती है।
जागरण।

एक चौंकी हुई झपकी।
एक आह
टूटी हुई सर्द।
एक सहमा हुआ सन्नाटा
और दर्द
और दर्द
और दर्द...
धीरे-उफ़ कितनी धीरे
यह रात ढलती है...

नयी दिल्ली, शरत्पूर्णिमा, 6 अक्टूबर, 1968