Last modified on 15 जुलाई 2014, at 21:32

रात हुई है / बुद्धिनाथ मिश्र

रात हुई है चुपके-चुपके
इन अधरों से उन अधरों की
बात हुई है चुपके-चुपके ।

नीले नभ के चाँद-सितारे
मुझ पर बरसाते अंगारे
फिर भी एक झलक की ख़ातिर
टेर रहा हूँ द्वारे-द्वारे ।
मेरे मन की छाप-तिलक पर

घात हुई है चुपके-चुपके ।

इक चिड़िया ने आकर कैसे
नीड़ बनाया, देख रहा हूँ
भीतर बाहर कैसे एक
नशा-सा छाया, देख रहा हूँ ।
देख रहा हूँ कैसे शह से
मात हुई है चुपके-चुपके ।

मेरा उससे परिचय इतना
जितना ओसबिन्दु का तृण से
कोई पता नहीं कब जलकण
टूट गिरे सीपी में घन से ।
इक हिरना की आँखों में
बरसात हुई है चुपके-चुपके ।