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रात होते, प्रात होते / अज्ञेय

 प्रात होते
सबल पंखों की अकेली एक मीठी चोट से
अनुगता मुझ को बना कर बावली-
जान कर मैं अनुगता हूँ-

उस बिदा के विरह के विच्छेद के तीखे निमिष में भी युता हूँ-
उड़ गया वह बावला पंछी सुनहला
कर प्रहर्षित देह की रोमावली को।
प्रात होते

वही जो थके पंखों को समेटे-
आसरे की माँग पर विश्वास की चादर लपेटे-
चंचु की उन्मुख विकलता के सहारे
नम रही ग्रीवा उठाये-

सिहरता-सा, काँपता-सा,
नीड़ की-नीड़स्थ सब कुछ की प्रतीक्षा भाँपता-सा,
निकट अपनों के-निकटतर भवितव्य की अपनी
प्रतिज्ञा के-
निकटतम इस विबुध सपनों की सखी के आ गया था-
आ गया था रात होते!

मेरठ, 21 फरवरी, 1941