राधिके! तुम मम जीवन-मूल।
अनुपम अमर प्रान-संजीवनि, नहिं कहुँ कोउ समतूल॥
जस सरीर में निज-निज थानहिं सबही सोभित अंग।
किंतु प्रान बिनु सबहि यर्थ, नहिं रहत कतहुँ कोउ रंग॥
तस तुम प्रिये! सबनि के सुख की एकमात्र आधार।
तुहरे बिना नहीं जीवन-रस, जासौं सब कौ प्यार॥
तुहारे प्राननि सौं अनुप्रानित, तुहरे मन मनवान।
तुहरौ प्रेम-सिंधु-सीकर लै करौं सबहि रसदान॥
तुहरे रस-भंडार पुन्य तैं पावत भिच्छुक चून।
तुम सम केवल तुमहि एक हौ, तनिक न मानौ ऊन॥
सोऊ अति मरजादा, अति संभ्रम-भय-दैन्य-सँकोच।
नहिं कोउ कतहुँ कबहुँ तुम-सी रसस्वामिनि निस्संकोच।
तुहरौ स्वत्व अनंत नित्य, सब भाँति पूर्न अधिकार।
काययूह निज रस-बितरन करवावति परम उदार॥
तुहरी मधुर रहस्यमई मोहनि माया सौं नित्य।
दच्छिन बाम रसास्वादन हित बनतौ रहूँ निमि॥