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रानीखेत से हिमालय / शिरीष कुमार मौर्य

विपाशा के कवितांक में प्रकाशित

रानीखेत से हिमालय

बेटे से कुछ बात

वे जो दिखते हैं शिखर

नंदघंटा-पंचाचूली-नंदादेवी-त्रिशूल

वगैरह

उन पर धूल राख और पानी नहीं

सिर्फ बर्फ गिरती है

अपनी गरिमा में

निश्छल सोये-से

वे बहुत बड़े और शांत

दिखते हैं

हमेशा ही

बर्फ नहीं गिरती थी उन पर

एक समय था

जब वे थे ही नहीं

जबकि बहुत कठिन है उनके न होने की

कल्पना

अक्षांशों और देशांतरों से भरी

इस दुनिया में

कभी वहां समुद्र था

नमक और मछलियों और एक छँछे उत्साह से भरा

वहांँ समुद्र था

और बहुत दूर थी धरती

पक्षी जाते थे कुछ साहसी

इस ओर से उस ओर

अपना प्रजनन चक्र चलाने

समुद्र

उन्हें रोक नहीं पाता था

फिर एक दौर आया

जब दोनों तरफ की धरती ने

आपस में मिलने का

फैसला किया

समुद्र इस फैसले के ख़िलाफ़ था

वह उबलने लगा

उसके भीतर कुछ ज्वालामुखी फूटे

उसने पूरा प्रतिरोध किया

धरती पर दूर-दूर तक जा पहुंचा

लावा

लेकिन

यह धरती का फैसला था

इस पृथ्वी पर

दो-तिहाई होकर भी रोक नहीं सकता था

जिसे समुद्र

आख़िर वह भी तो एक छुपी हुई

धरती पर था

धरती में भी छुपी हुई कई परतें थीं

प्रेम करते हुए हृदय की तरह

वे हिलने लगीं

दूसरी तरफ़ की धरती की परतों से

भीतर-भीतर मिलने लगीं

उनके हृदय मिलकर बहुत ऊंचे उठे

इस तरह हमारे ये विशाल और अनूठे

पहाड़ बने

यह सिर्फ भूगोल या भूगर्भ-विज्ञान है

या कुछ और?

जब धरती अलग होने का फैसला करती है

तो खाईयां बनती हैं

और जब मिलने का तब बनते हैं पहाड़

बिना किसी से मिले

यों ही

इतना ऊंचा नहीं उठ सकता

कोई

जब ये बने

इन पर भी राख गिरी ज्वालामुखियों की

छाये रहे धूल के बादल

सैकड़ों बरस

फिर गिरा पानी

एक लगातार अनथक

बरसात

एक प्रागैतिहासिक धीरज के साथ

ये ठंडे हुए

आज जो चमकते दीखते हैं

उन्होंने भी भोगे हैं प्रतिशोध

भीतर-भीतर खौले हैं

बर्फ-सा जमा हुआ उन पर

युगों का अवसाद है

पक्षी अब भी जाते हैं यहां से वहाँ

फर्क सिर्फ इतना है

पहले अछोर समुद्र था बीच में

अब

रोककर सहारा देते

पहाड़ हैं! -2005-

वागर्थ में प्रकाशित